नई दिल्ली : दिल्ली हाई कोर्ट के जज वी. कामेश्वर ने मंगलवार को एक मामले की सुनवाई करने के दौरान एक महिला का गुजारा भत्ता कम करने का फैसला देते हुए यह बात कही। पीठ ने कहा, ‘जिस पति या पत्नी के पास कमाने की उचित क्षमता है लेकिन जो बिना किसी पर्याप्त स्पष्टीकरण या रोजगार हासिल करने के ईमानदार प्रयासों के संकेत के बिना बेरोजगार और निष्क्रिय रहना चुनता है, उसके खर्चों को पूरा करने की एकतरफा जिम्मेदारी दूसरे पक्ष पर डालने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।’
इस पीठ में न्यायमूर्ति अनूप मेंदीरत्ता भी शामिल थे। उन्होंने यह कहा कि समतुल्यता गणितीय परिशुद्धता के साथ नहीं होनी चाहिए बल्कि इसका उद्देश्य भरण-पोषण मुकदमे के लंबित होने और मुकदमेबाजी के खर्चों के माध्यम से राहत प्रदान करना है जो पति/पत्नी खुद का भरण-पोषण और समर्थन करने में असमर्थ हैं। हिंदू विवाह अधिनियम (एचएमए) के तहत कार्रवाई का उद्देश्य किसी भी पार्टी को कार्यवाही के लंबित रहने और आय के स्रोत की कमी के कारण नुकसान न उठाना पड़े, यह भी सुनिश्चित करना है।
पीठ ने यह भी कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम (एचएमए) के तहत कार्यवाही लंबित रहने के दौरान गुजारा भत्ता का प्रावधान लैंगिक रूप से तटस्थ है। एचएमए की धारा 24 और 25 के प्रावधानों में एचएमए के तहत पार्टियों के बीच विवाह से उत्पन्न अधिकारों, देनदारियों और दायित्वों का प्रावधान है।
पति ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर यह तर्क दिया कि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत पत्नी को 21 हजार रुपये प्रति माह भुगतान करने का निर्देश दिया गया था लेकिन बाद में हिंदू विवाह अधिनियम के तहत इसे बढ़ाकर 30 हजार रुपये प्रति माह कर दिया गया है। पति ने अपनी सैलरी कम होने का हवाला दिया। पति ने अपने दलील में कहा कि वह अपनी बहनों, भाई और बुजुर्ग माता और पिता को आर्थिक मदद करता है। उसने यह भी बताया कि उसने अपने भाई की शादी के लिए लोन लिया जिसे चुकाया जाना बाकी है। इसके साथ ही पति ने कोर्ट के सामने यह साक्ष्य पेश किया उसकी पत्नी दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएट है। कोर्ट को यह भी बताया कि उसकी पत्नी एक अस्पताल में रिसेप्शनिस्ट के बतौर काम करती थी और उसे 25 हजार रुपये सैलरी भी मिलती थी। इसके जवाब में पत्नी ने कहा कि वह अस्पताल में सोशल सर्विस दे रही थी जिसके बदले उसे कोई पगार नहीं मिल रही थी। दोनों की दलील और साक्ष्यों के आधार पर अदालत ने पाया कि पति को काटछांट कर 56,492 रुपये महीने मिलता है। हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के मेंटिनेंस बढ़ाए जाने के पीछे कोई तर्क नहीं दिए जाने की बात कही।