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दैनिक उजाला डेस्क : संग्रह की कविताएं RTPCR रिपोर्ट की तरह पॉजिटिव तथा नेगेटिव हैं, जो समाज के अंतर्संबंधों की MRI करती हैं।

‘कविता’ किसके पक्ष में खड़ी हो और ‘कवि’ किसके पक्ष में खड़ा होना चाहिए..? वर्तमान समय का यह प्रश्न भले ही आपको मथे लेकिन, यह प्रश्न सर्वकालिक है किन्तु, एक जनधर्मी कवि जन-मन की पीड़ा को महसूस करके, अपनी कविता को अपने कथ्य, शिल्प, प्रश्नों तथा भावों में पिरोकर जनमानस के समक्ष रखने का प्रयास करता है, यही जन की पीड़ा रचनाकार के भावों के केंद्र में होती है, जो उसे रचना लिखने को उद्वेलित करती है और यही एक वजह कवि और उसकी कविता को जनपक्षधर बनाती है।

जन-जन की इस पीड़ा से पूरी दुनिया का साबका तब पड़ा, जब दो वर्ष पूर्व वैश्विक स्तर पर कोरोना वायरस आया, जिसने मानव, मानवता और मानवीय मूल्यों को प्रभावित कर दिया। इसी कोरोनाकाल की त्रासदी पर आधारित काव्य-रचनाओं का संग्रह “मौत का उत्सव” प्रख्यात कवि रवि खण्डेलवाल द्वारा रचित संग्रह है । संग्रह में समाहित कविताओं को नवगीत, कविता, दोहा, ग़ज़ल, अशआर और मुक्तक छह खंडों में बांटा गया है। सार्वभौमिक शिल्प के साथ उनकी भाषा सहज व सरल रूप में, भोगे हुए यथार्थ को सम्पूर्ण रचनाओं में मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रस्तुत करती है। रवि खंडेलवाल के काव्य में प्रतिरोध की व्यंजना है तथा लोकतंत्र व संविधान के प्रति गहरी चिंता भी है। कोरोनावायरस की विभीषिका की शुरुआत लॉकडाउन से हुई, जिसमें मध्य रात्रि से ही जीवन ठहर गया, जिसे कवि रवि खण्डेलवाल ने अपने कविता संग्रह के नवगीत खंड के पहले ही नवगीत ‘चक्के जाम हुए हैं’ में अपने शब्द चित्र के माध्यम से जीवंत कर दिया है-

‘सन्नाटे ने
पाँव पसारे
चलती सड़कों पर
अँधियारों ने
कालिख पोती
दिन के चेहरों पर’

कोरोना की रिपोर्ट पॉजिटिव आने पर व्यक्ति को क्वॉरेंटाइन कर दिया जाता था, जिसे कवि ने अपने शब्दों में कुछ यूँ अभिव्यक्ति प्रदान की है –

कोरोना के मारे
सबके सब
एक लाइन हैं
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे तक
क्वारनटाइन हैं’

कोविड’19 की काली रातों से निकल कर जब सूरज पुनः अपनी रोशनी बिखेरने लगा और जन-जीवन अपनी दैनंदिन दिनचर्या की पटरी पर वापस आने लगा, तो कोविड ने अपने नये वेरिएंट के साथ पुन: अपनी वापसी दर्शाना शुरू कर दी। कवि ने आशा-निराशा और शंका-कुशंकाओं के मध्य पनप रही जीवन की इस त्रासदी को अपने नवगीत “कोविड वाले कल” में यों शब्द दिए –

दो हज़ार इक्कीस जा रहा
देकर कड़वे पल
स्याह रंग से पुते हुए हैं
कोविड वाले कल

असमंजस की ओढ़ी चादर
फिर से शहरों ने
ली अंगड़ाई शांत नदी की
फिर से लहरों ने

लौट रही सड़कों से वापस
घर को फिर हलचल’

भटकी हुई सत्ता को सही रास्ते पर लाने का महत्वपूर्ण कार्य कवि ही करता आया है, इसी परिप्रेक्ष्य में रवि खंडेलवाल कविता-खंड की पहली कविता में आह्वान करते हैं-

‘अज्ञान के
अंधिश्वास के
हैं अभी भी बहुत
‘रवि’ घनेरे अँधेरे

चलो आओ मिलके
अँधेरे मिटाएँ

हराना कोरोना को
यदि है हमें
‘ज्ञान-विज्ञान’ के दीप
घर-घर जलाएँ’

मीडिया का कार्य सच को दिखलाना था, पर देखते ही देखते कब सच के नाम पर झूठ परोसने लगा, पता ही नहीं चला। आम आदमी के दिल-दिमाग पर इसकी अमिट छाप छप चुकी थी, इसके विरोध में भी देश के कई नामचीन पत्रकार अपनी-अपनी लेखनी से लिख रहे थे लेकिन एक ही बात को सुबह से शाम तक बोलने वाले टीवी की बात को मिटाना आसान नहीं होता मगर कवि को ‘सच को सच’ लिखने से कौन रोक सकता है…? ‘सच’ कविता में रवि खंडेलवाल लिखते हैं-

‘सच देखना
और दिखाना
बाधित है मेरे दोस्त
सच तो यह है
कि हम
सच को भी अपने-अपने
हिसाब से देखने के
आदी हो गए हैं’

समय बदल रहा था और उसके साथ रोज़गार के अवसर भी कम होने लगे थे। उस पर कमाल ये कि हुक्मरानों द्वारा आपदा को ही अवसर में बदलने की उद्घोषणा कर दी गई थी, पर आपदा को अवसर में बदलना आसान नहीं होता, जबकि मौत सर पर मंडरा रही हो। इस कार्य को संवेदनशील व्यक्ति कदापि नहीं कर सकता किंतु शासक-वर्ग के पास सम्वेदना कहाँ होती है, उसे तो हर परिस्थिति में जीतना होता है। इसीलिए उसके लिए संवेदना महत्वपूर्ण नहीं होती, चुनाव महत्वपूर्ण होते हैं, यही जरूरत हुक्मरानों को भाषा, जाति, धर्म के नाम पर जनता को विभाजित करने के लिए कला सिखाती है, जिससे वर्तमान हुक्मरान भी नहीं चूके। रचनाधर्मी रवि खण्डेलवाल ने ‘आपदा को अवसर में बदलना है’ शीर्षक से कविता में लिखा है-

‘आपदा को
अवसर में बदलने की कला
हर किसी को नहीं आती

बंधु
ये वो कला है
जो अपने मंसूबों को
करने को साकार
मरकज में इकट्ठा हुए
तब्लीग़ी जमात
के नाम पर
वायरस को पहनाते हैं
मज़हब का ताना बाना’

जीवन में कभी भी समय एक सरीखा नहीं हो सकता, जिस प्रकार दुख-सुख, गम-खुशी हमारे जीवन के सह-यात्री हैं, उसी प्रकार शत-प्रतिशत अशुभ भी नहीं घट सकता, अशुभ के साथ शुभ भी जुड़ा होता है। जब कोरोनाकाल में मानव जीवन पर संकट छा गया, तब प्रकृति प्रदूषण मुक्त दिखने लगी, जिसे शब्दशिल्पी कवि ने जीवन का संदेश मानते हुए लिखा है-

‘क्या
कभी किसी ने
सोचा था कि
मौत का वायरस कोरोना
महामारी के खौफ़ के वशीभूत
सम्पूर्ण मानव जाति को
अपने अपने घरों में
कर देगा कैद

और
होकर स्वयं मुस्तैद
सम्पूर्ण वातावरण को
कर देगा प्रदूषण से मुक्त
जल थल पावक
गगन समीरा को
कर देगा
विशुद्ध रूप से शुद्ध
सम्पूर्ण प्राकृतिक सौंदर्य के मध्य
साँस लेने के उपयुक्त
पर्यावरण से युक्त
प्रदूषण से मुक्त’

कोरोनाकाल में इधर मानव बीमारियों से सिसक रहा था, उधर व्यापारियों की पौ-बारह हो रही थी, जिन्होंने मानवता को ताक पर रखकर खूब मुनाफा कमाया, जिस पर कवि रवि ने ‘लॉकडाउन लागू रहे’ में दोहे के माध्यम से लिखा है-

‘काश कि होता तनिक भी,करुणा का कुछ अंश
डसता मानव को नहीं, कोरोना का दंश।’

जीवन में जिस समय हमें जिस वस्तु की जरूरत होती है, चाहे वह ऑक्सीजन सिलेंडर हो या रेमडेसिविर
इंजेक्शन हो, यदि वह समय पर उपलब्ध न हो या मुश्किल हालात बन जाएँ तो ऐसे में सिवाय हाथ मलने और मलाल करने के अलावा आम इंसान कर ही क्या सकता है? कोरोनाकाल में ऐसा ही हुआ, जिसे भी कवि रवि खंडेलवाल ने अपने एक दोहे में बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति दी है-

‘अस्पताल को मिल गया, मुँह मांगा वरदान
ले लो जितनी ले सको, इंसानों की जान।’

कवि प्रायः संतोषी प्रवृत्ति के होते हैं और वो चाहते हैं कि हर परिस्थिति में मन का संतोष ही ऐसा प्रसाद है, जो अनेक दुखों से मुक्त करता है। कवि लिखते हैं-

‘घर में रह सुख चैन से’ किंचित मत कर रोष
बुरा वक्त टल जाएगा, मन में रख संतोष।’

इतनी भयावह तथा विपरीत परिस्थितियों में डॉक्टर, नर्स, कंपाउंडर आदि अपनी ड्यूटी का पूर्ण निर्वहन कर रहे थे, तो भगवान मंदिरों में केवल पत्थर ही बन कर रह गया। कोई मन्नत, कोई अरदास, कोई सेवा, कोई पूजा काम नहीं आई। इस समय केवल विज्ञान का चमत्कार लोगों ने देखा, जिसकी कवि रवि खण्डेलवाल ने अपने एक दोहे में बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति की है-

‘इंसानों की डॉक्टर, बचा रहा ‘रवि’ जान
क्वॉरेंटाइन है हुआ, पत्थर का भगवान।’

यूँ भी इस कोरोनाकाल में व्यक्ति अमीर-गरीब के बीच बँट गया क्योंकि बीमारी सबकी एक ही थी किंतु उपचार अमीरों को अधिकतम था क्योंकि उनके पास रुपयों की कोई कमी नहीं थी। ये ऐसा समय था जब समाज का सबसे घिनौना और वीभत्स चेहरा देखने को मिला, जिसे रवि खंडेलवाल ने अपनी ग़ज़ल ‘जुबां पर हर किसी के’ में एक शेर के माध्यम से कहा है-

‘अमीरों को मुहय्या जिंदगी पाने का हर साधन
गरीबों के लिए है मौत का पैगाम कोरोना’

इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए एक मुक्तक के माध्यम से रवि खंडेलवाल कहते हैं-

‘बदनाम जिससे आपका हो नाम, ना करो
ऐसा कभी भी कोई भी तुम काम, ना करो
कुछ जाहिलों की हरकतों को ग़ौर कर ‘रवि’
पूरी की पूरी कौम को बदनाम, ना करो’।

उत्सव प्रिय देश में, जहां ज़िंदगी के द्वारा किसी भी उत्सव को ‘ज़िंदगी का उत्सव’ के रुप में हर्षोल्लास के साथ धूमधाम से मनाते हुए देखा जा सकता है, वहीं रवि खण्डेलवाल ने संवेदनहीन होती मानवता के बीच मौत के द्वारा
मरघटों पर जलती चिताओं के रूप में तो कब्रिस्तान की सीमाओं को लांघते हुए दफ़्न होते मानव शरीरों को, नदी और नालों में लावारिस की तरह फेंके गए मुर्दा शरीरों को, अस्पतालों और सहायता शिविरों में चलती-फिरती ज़िंदगियों को मौत में तब्दील हो खामोशी के साथ “मौत का उत्सव” मनाते देखा है, उन्होंने अपनी एक ग़ज़ल के दो शेर में मौत के उत्सव को कुछ यूँ अभिव्यक्ति प्रदान की है –

‘जिधर देखो उधर भगदड़ मची मरघट पे आने की
सभी लाशें हैं जल्दी में यहाँ बैकुंठ जाने की
उजालों से हुई है रात तक रोशन न पूछो कुछ
चिताओं ने भी ठानी है यहां उत्सव मनाने की’

कवि रवि खंडेलवाल का यह संग्रह उनकी माँसी (ज्ञान गुप्ता) और सासू माँ (सुधा रावत) को समर्पित है, जिसमें उन्होंने अपने परिवार के साथ घटित कोरोना की त्रासदी को न केवल मार्मिक शब्द प्रदान किये हैं अपितु समाज की हिंसक प्रवृत्ति, दिशाहीन लोकतंत्र, सत्ता लोलुप शासक-वर्ग, मानवीय पहलू, अमीरी-गरीबी, विज्ञान और भगवान आदि विषयों को अपनी कलम की ताकत से काव्य रचनाओं में ढालकर ऐसी सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान की है, जिसकी मिसाल शायद ही कहीं देखने को मिले ।

यूँ तो कोरोनाकाल में अनेक साहित्यकारों ने अनेक विधाओं में साहित्य का सृजन किया किंतु कोरोनाकाल की इस त्रासदी के सूक्ष्म से सूक्ष्म पहलू को जिस प्रकार कवि रवि खण्डेलवाल ने अपनी काव्य रचनाओं में समाहित किया है, उसकी मिसाल हैं उनके ये चंद शे’र –

‘इक वायरस ही नांय भयौ मज़हबी सखे
फल-सब्जियां भी, हिन्दू-मुसलमान हो गईं’
*
‘कह सकता मैं नहीं हादसे पटरी पर अरु सड़कों पर
नाकारा शासन ने श्रम की सरेआम हत्या की है’
*
‘सोचा दो बोलों से आ, दुख दर्दों को सहलाएँगे
नमक छिड़क कर त्याग तपस्या का ज़ख्मों पर चले गए’
*
‘जाने कितने सपने लेकर आये थे वो शहरों में
पूरे किए स्वप्न शहरों के, खुद पल पल में छले गए’
*
‘दुःख, तकलीफों, कष्टों को दे त्याग, तपस्या का ‘रवि’ नाम
लोकल’ वोकल’ ग्लोबल कहकर, खंभे गाढ़े चार अरु पांच’
*
‘दादा भइया कहने पर भी जो था सबको सता रहा
नगर निगम अब सबको अपनी दादागीरी दिखा रहा’
*
‘काल की जब कालिमा से ग्रस्त है दुनिया
‘रवि’ प्रकाशोत्सव मनाने में लगा भारत’
*
‘उत्सव मनाने में मगन हैं मौत का वही
बरसा रहे हैं फूल जो उड़ते विमान से’
*
‘देश दुनिया में मची है त्राहि-त्राहि जब
‘मौत का उत्सव’ मनाने में लगे हैं हम’

यही वजह है कि यह संग्रह ‘मौत का उत्सव’ इस कोरोना काल-खंड का एक प्रामाणिक दस्तावेज बन गया है। संवेदनहीन होते समाज के मध्य कवि रवि खण्डेलवाल के संवेदनशील कवि हृदय का भी परिचय उनके इस संग्रह में प्रकाशित उनकी “मौत का उत्सव – आत्माभिव्यक्ति” को पढ़ कर मिला –
“……मैं उन सभी कवि, लेखक, पत्रकार और पृथ्वी के समस्त जन मानस को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूंँ, जो इस बीमारी के कारण अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए व अपना उन सभी के प्रति शीश झुकाता हूँ, जिनके सद् प्रयासों से कोरोना की इस जंग को जीतने में हम सफल हुए। मेरी उन सभी बच्चों, माता-पिताओं के प्रति भी अपनी संवेदनाएँ प्रकट करता हूँ, जो इस लड़ाई को जीत कर भी अपनों को खोने के बाद अकेले पड़ गए।”

अंत में मैं यही कहूँगा कि इस संग्रह की कालजयी काव्य रचनाओं को पढ़ा ही नहीं जाना चाहिए, अपितु इसे अपनी लाइब्रेरी का हिस्सा भी बनाना चाहिए, क्योंकि संग्रह की कविताएं RTPCR रिपोर्ट की तरह पॉजिटिव तथा नेगेटिव हैं, जो समाज के अंतर्संबंधों की MRI करती हैं।

समीक्षित कृति : मौत का उत्सव
कवि – रवि खण्डेलवाल
प्रकाशक: श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
मोबाइल नंबर: +91 8447540078
Email: shwetwarna@gmail.com
मूल्य: 199/-

डॉ. धर्मराज- प्रवक्ता- एस एम डिग्री कॉलेज, मथुरा
सचिव – जनवादी लेखक संघ, मथुरा
सचिव- जन सांस्कृतिक मंच, मथुरा

Mob. 8273061292

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