- बांके बिहारी जी का मंदिर एक स्थापत्य नहीं, वह एक जीवंत रासलीला है
- डर है कि विकास के नाम पर यदि उनका विस्थापन हुआ, तो वृंदावन केवल एक निर्मित ढांचा बन जाएगा, जिसकी आत्मा बाजार और पर्यटन के शोर में दब जाएगी
-योगेश कुमार
वृंदावन की गलियां ईंटों से नहीं बनीं। वे उन संतों की चरण-धूल से बनीं हैं जिनकी सांसों में राधे-नाम अनवरत गूंजता रहा है। यहां की संकरी गलियां किसी नगर नियोजन की असफलता नहीं, बल्कि एक ऐसी आध्यात्मिक लय हैं, जो मन को भीतर की ओर मोड़ देती हैं। बांके बिहारी जी का मंदिर एक स्थापत्य नहीं, वह एक जीवंत रासलीला है, जहां प्रवेश करते ही व्यक्ति दृष्टा नहीं रहता, वह लीला का अंग बन जाता है। यहां के दर्शन, समय-सारिणी या प्रवेश-पास से नहीं, भावों की तीव्रता से होते हैं। यह कोई ऐसी जगह नहीं जहां मनुष्य ईश्वर को देखता है; यह वह स्थल है जहां मनुष्य स्वयं को अपने ठाकुर की दृष्टि में देखता है।
श्रद्धा और भक्ति की ऐसी जगह पर जब राज्य सरकार कॉरिडोर निर्माण और मंदिर संचालन के लिए एक ट्रस्ट के गठन की योजना लाती है, तो यह कदम विकास का साधन मात्र नहीं रह जाता, बल्कि आस्था, पहचान और परंपरा की जड़ों को छूने लगता है। ये सरकारी प्रयास कुछ मूलभूत प्रश्न उठाते हैं कि क्या व्यवस्था श्रद्धा का नियंता हो सकती है? क्या परंपरा, जो सदियों से स्वयं में स्वायत्त, समर्पित और संतुलित रही है, उसे शासन के ढांचे में ढालना आवश्यक है? ये प्रश्न केवल सांस्कृतिक नहीं, यह एक गहरे वैचारिक विमर्श की मांग करते हैं।
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष है, पर भारत की आत्मा धर्ममय है। यह धर्म संस्थानों की सत्ता की बात नहीं करता, यह धर्म को एक जीवनशैली के रूप में मानता है। संविधान हर धार्मिक सम्प्रदाय को अपने धार्मिक कार्यों के संचालन और संस्थाओं के प्रबंधन की स्वतंत्रता देता है, जब तक कि वह सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के विरुद्ध न हो। प्रश्न उठता है कि क्या बांके बिहारी मंदिर की सेवा परंपरा इन तीनों कसौटियों पर खरी नहीं उतरती? क्या वहां की परंपरागत सेवा व्यवस्था आज तक किसी भी सार्वजनिक संकट या नैतिक विचलन का कारण बनी है? यदि नहीं, तो फिर हस्तक्षेप का औचित्य क्या है?

वृंदावन का भावलोक इन सबसे भिन्न है। यहां लीला का स्पर्श व्यवस्था से परे है। यह केवल समय में नहीं घटती, यह समय को भंग करती है। यहां दर्शन उस क्षण में नहीं होता जब पट खुलता है, बल्कि उस क्षण में जब मन पट खोल देता है और उस दर्शन को यदि केवल रिंग-पास, लोहे की रेलिंग और ‘दर्शन स्लॉट’ में बांधा गया, तो वह रस विलीन हो जाएगा। यहां इतिहास भी हमें सावधान करता है।
1950 के दशक में जब तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश में सरकारों ने मंदिरों के प्रबंधन में हस्तक्षेप किया, तो वहां की परंपराएं धीरे-धीरे क्षीण होने लगीं। पुजारियों की भूमिका सरकारी ‘एम्प्लॉई’ बनकर रह गई और अनुष्ठान एक दिनचर्या। आज काशी, उज्जैन और शिर्डी जैसे स्थलों पर भव्यता तो है, पर वह अंतरंगता नहीं, जो भगवान और भक्त के बीच एक अव्याख्येय स्पंदन रचती थी।
सरकार का तर्क है कि वृंदावन में तीर्थयात्रियों की लगातार बढ़ती संख्या के कारण सुविधाओं का विस्तार आवश्यक है। मंदिर परिसर और पास की संकरी गलियों में भक्तों की भीड़ बढ़ने से पिछले वर्षों में कई बार स्थिति गंभीर बनी है और इसके समाधान के रूप में सरकार ने कॉरिडोर परियोजना का खाका खींचा है, जिसमें आपातकालीन द्वार, दर्शन कतार व्यवस्था और मंदिर के आसपास संरचनात्मक सुधार की योजना है। इसी के तहत 18 सदस्यीय एक ट्रस्ट के गठन की बात हुई है, जिसमें सरकारी प्रतिनिधियों, स्थानीय अधिकारियों और सेवायत समुदाय के लोगों को सम्मिलित करने का प्रस्ताव है। इन दोनों योजनाओं का उद्देश्य, सरकार के अनुसार, व्यवस्थापन को पारदर्शी और सुरक्षित बनाना है।
बेशक ये तर्क नकारे नहीं जा सकते। जब लाखों लोग आते हैं, तो व्यवस्था चाहिए। पर व्यवस्था सेवा का पर्याय नहीं हो सकती। सेवा सजीव होती है, व्यवस्था निर्जीव। सेवा प्रेम से चलती है, व्यवस्था आदेश से। सेवा एक परंपरा का प्रवाह है, व्यवस्था एक यांत्रिक अनुशासन। जब दोनों को एकमेक किया जाता है, तो सेवा दम तोड़ देती है और केवल प्रबंधन रह जाता है।
हर विकास के प्रस्ताव का एक दूसरा पक्ष भी होता है और वृंदावन के स्थानीयों, सेवायतों और श्रद्धालुओं की चिंताएं उसी पक्ष को उजागर करती हैं। सेवायत परिवार, जो पीढ़ियों से इस मंदिर की सेवा में समर्पित हैं, ट्रस्ट के गठन को अपनी धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप मानते हैं। उनके अनुसार यह न केवल मंदिर की परंपरा, बल्कि उनके संवैधानिक अधिकारों के विरुद्ध है। गोस्वामी/सेवायतों को आशंका है कि एक सरकारी ट्रस्ट के माध्यम से धीरे-धीरे मंदिर प्रशासन पर उनका प्रभाव समाप्त कर दिया जाएगा, जिससे न केवल परंपराएं विलीन होंगी, बल्कि मंदिर की आत्मा भी प्रभावित होगी।
स्थानीय निवासियों की चिंताएं भी कम गहन नहीं हैं। जिन गलियों से होकर ठाकुर बिहारी जी की परिक्रमाएं निकली हैं, जिन चौबारों में संतों ने वाणी की, जिन घरों में ठाकुर के सेवक पीढ़ियों से बसे हैं, वे सब इस परियोजना के दायरे में आ सकते हैं। उन्हें डर है कि विकास के नाम पर यदि उनका विस्थापन हुआ, तो वृंदावन केवल एक निर्मित ढांचा बन जाएगा, जिसकी आत्मा बाजार और पर्यटन के शोर में दब जाएगी। उनका कहना है कि श्रद्धा और स्मृति का यह संसार केवल चौड़ी सड़कों और संगठित कतारों से नहीं चलता, बल्कि उस सहजता से चलता है जिसमें ठाकुर स्वयं अपने भक्तों को खींच लाते हैं।
यदि बांके बिहारी मंदिर में यह मॉडल सफल माना गया, तो यह एक नजीर बनेगा, जिसे शेष भारत के तीर्थों पर लागू किया जा सकता है। यही कारण है कि यह केवल वृंदावन की बात नहीं है, यह भारत के भविष्य की बात है।
बलदेव विकास समिति के अध्यक्ष ज्ञानेन्द्र पांडेय कहते हैं कि आज सरकार ने कॉरिडोर के नाम पर इस भक्ति को ट्रस्ट गठन से समेट कर रख दिया और इससे वृंदावन के गोस्वामियों की ही नहीं, बल्कि नंदगाव, बरसाना, गोवर्धन तथा बलदेव के उन सेवायतों की आस्था को ठेस पहुंची जो कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी व्यवस्थाओं को अनुकूल रख आज तक सभ्यता में समेटे रहे। आज वृंदावन बांके बिहारी की उन कुंज गलियों को उजाड़ा जायेगा और कल को अन्य स्थलों की परंपराएं भी ‘कॉरिडोर’ के नाम पर औद्योगिक परियोजनाओं में बदल जाएंगी। श्रद्धा को ‘यूजर एक्सपीरियंस’ में बदल दिया जाएगा। भक्ति ऐप्स पर निर्भर होगी और दर्शन ‘डिजिटल टोकन’ से मापा जाएगा।
जो भय है, वह शासन से नहीं, उसकी नीयत और दृष्टि से है। आज श्रद्धा को योजना की भाषा में समझा जा रहा है, पर श्रद्धा केवल योजना से नहीं चलती, वह प्रेम से चलती है। इस पूरे प्रकरण में यदि कोई चीज सबसे ज्यादा खलती है, तो वह है संवाद की कमी। सरकार ने जो प्रस्ताव रखे, वे जरूरतमंद हो सकते हैं, लेकिन वे तब तक संपूर्ण नहीं कहे जा सकते जब तक वे स्थानीय भावनाओं और धार्मिक परंपराओं को आत्मसात न करें। वृंदावन को किसी अन्य पर्यटन स्थल की भांति नहीं देखा जा सकता। यह एक जीवंत तीर्थ है, जहां ईंट-पत्थर से पहले आस्था की नींव होती है।
समाधान तब संभव होगा जब सरकार अपने दृष्टिकोण में भागीदारी को स्थान दे और स्थानीय समुदाय अपने आक्रोश में संवाद का द्वार बंद न करे। वृंदावन को सुविधा की नहीं, समझ की ज़रूरत है। बांके बिहारी का मंदिर केवल ईंटों से बना कोई भवन नहीं, बल्कि उस लीला का केंद्र है जिसे किसी नक्शे या परियोजना में नहीं बांधा जा सकता। यदि परिवर्तन आवश्यक है, तो वह परंपरा से संवाद करते हुए ही सार्थक हो सकता है। व्यवस्था श्रद्धा के ऊपर नहीं, श्रद्धा के साथ खड़ी होनी चाहिए। क्योंकि वृंदावन को केवल सजाया नहीं जा सकता, उसे जिया जाता है।
वरिष्ठ समाजसेवी अजीत सिंह ने कहा कि हम सब समाज सेविओं की मांग है कि वृंदावन में दर्शनार्थी, पर्यटकों को जगह जगह रोकने के लिए जो भी सुख सुविधा बनाई जायें, उसके लिए जो 5 एकड़ जमीन प्रस्तावित वृंदावन की घनी आबादी, शहर उजाड़, तोड़ फोड़ करके न बनाई जाएं। बांके बिहारी दर्शनार्थी प्रांगण को चौड़ा करने के लिए बांके बिहारी के चबूतरों को, रसोई घर को, डाकघर को, हॉल बरामदो को तोड़कर दर्शनार्थी प्रांगण में मिलाते हुए बाकी की बड़ी सुख सुविधा बांके बिहारी जी मंदिर के समीप यमुना नदी के दोनों किनारे- किनारे खुली खाली पडी ग्राम समाज की सरकारी जमीन में पर्यटक स्थल बनाए जाएं। इसी यमुना नदी क्षेत्र से एक सीधी चौड़ी सड़क दर्शनार्थियों के आने जाने के लिए बांके बिहारी जी मंदिर तक बनाई जाए। हम लोग कॉरिडोर का विरोध नहीं कर रहे हैं हमारा विरोध है कि पुराने बाजार आदि की घनी पुरानी आबादी को न उजाड़ा जाये, न पूरे वृंदावन ब्रज नगरी को तोड़ा जाए। सिर्फ बड़ा चौड़ा रास्ता बांके बिहारी जी मंदिर के समीप से यमुना नदी तक बनाकर यमुना नदी पर एक बड़ा लक्ष्मण झुला रूपी ब्रिज बनाकर यमुना नदी पार जो, यमुना नदी किनारे कई हजार हेक्टेयर ग्राम समाज की सरकारी भूमि खाली पड़ी है। इन जमीनों पर दर्शनार्थी, पर्यटकों के लिए सुख सुविधा के लिए जगह- जगह रोकने के लिए बड़ी कृष्णा थीम पार्क, बड़े-बड़े रिवर फ्रंट, बड़ी वॉटर बॉडी, कृष्णा कॉरिडोर, बड़ी हाईटेक ट्रेफिक वाहन पार्किंग बनाई जाएं व इसी क्षेत्र एरिया से बाईपास हाईवे नई सड़क बनाकर दोनों हाईवे मार्गों को आपस में जोड़ा जाए। इन सभी कार्यों से वृंदावन पूरा टूटने से बच जायेगा।