दम मारो दम मिट जाए गम…….(एक पुरानी फिल्मी दास्तान)
*‘हरे रामा हरे कृष्णा’ फ़िल्म बनने की कहानी भी दिलचस्प है. किस्सा 70 के दशक का है. देव आनंद 1970 में आई अपनी फ़िल्म ‘प्रेम पुजारी’ की विफलता के बाद हताश थे और नेपाल में थे.
नेपाल में कुछ ऐसा इत्तेफ़ाक हुआ कि देव आनंद ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ की स्क्रिप्ट के साथ लौटे और साथ में ये फैसला भी कि उनकी फ़िल्म लंदन या पेरिस में नहीं काठमांडू में शूट होगी.
अपनी किताब ‘रोमैंसिंग विद लाइफ़’ में देव आनंद ने लिखा है, “मैं काठमांडू में था और एक शाम अपने दोस्त के साथ ‘द बेकरी’ नाम की एक अजीब सी जगह पर गया जहाँ रात को हिप्पी आते थे.”
“उन दिनों युवाओं में हिप्पी बनने का क्रेज़ था- गांजा, अफ़ीम पीना, मौज-मस्ती करना, सिगरेट के धुँए में ग़ुम ये बस नशे में धुत रहते थे. माथे पर टिका लगाए, गले में गेंदों की फूल वाला माला पहने, एक दूसरे को चिल्लम पकड़ाते. आसमान को ताकते जैसे ध्यान कर रहे हों. ये सिनेमाई दृश्य था.
उन सब में से मेरा ध्यान भूरे रंग वाली एक लड़की पर गया. उसका चश्मा ज़मीन पर गिरा हुआ था और वो बोली बॉब मेरा चश्मा. यानी वो भारतीय थी. मुझे लगा कि इन हिप्पियों के बीच ये क्या कर रही है. ये दिलचस्प कहानी लग रही थी..” आगे के किस्से में देव आनंद लिखते हैं, “अगली शाम उस लड़की से मुलाक़ात हुई. उसने बताया कि उसकी माँ कनाडा में है और वो काठमांडू में घूम रही है. उसका नाम जसबीर था जो अब ख़ुद को जैनिस बुलाती थी. जैनिस ने बताया कि वो माँ से भागकर कनाडा से नेपाल आई है. उसके माँ-बाप का तलाक़ हो चुका था और पिता पंजाब में कहीं रहते हैं. जैनिस को लगता था कि उसके माँ-बाप ने उसका ख़्याल नहीं रखा और न ही इस पीढ़ी को समझते हैं. इसलिए वो कुछ पैसा चुराकर घर से भाग आई और हिप्पी बन गई.” जिसने भी ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ फ़िल्म देखी है और ज़ीनत अमान को ‘दम मारो दम’ में देखा है, वो समझ जाएगें कि फ़िल्म में दरअसल जैनिस उर्फ़ जसबीर और काठमांडू की कहानी है.

वरिष्ठ पत्रकार – चंद्र प्रताप सिंह सिकरवार के माध्यम से